शुक्रवार, 1 मई 2015

बस एक कहानी

भाग-3
दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए लेकिन वो नहीं मानी। इधर मेरा दोस्त रोज़ मेरी रिपोर्ट लेता, क्या हुआ आज? क्या बात हुयी? मानी की नहीं? और मैं भी सब कुछ सिलसिलेवार बता देता। इन सबके बीच कॉलेज और पढ़ाई का भी नुकसान होने लगा। अक्सर कॉलेज ना जाने का मूड होने लगा। मेरा दोस्त समझाता मुझे, लेकिन मैं कभी नहीं समझा। कभी-कभी तो वो भी झल्ला जाता था नहीं मान रही तो छोड़ ना, क्यों पीछे पड़ा है। लेकिन तब मैं मानने को तैयार ना था। अपनी प्रेमकथा का टायर पंचर नहीं होने देता चाहता था इसलिए रोज़ हवा भरता था उसमे, ये सोचकर कि कभी तो दौड़ेगा। सोचा आखिर समस्या क्या है, स्टेटस का भी फर्क नहीं था, कास्ट की भी कोई प्रॉबलम नहीं थी और हाँ सबसे ज़रूरी बात, अगर हाँ नहीं कहा तो ना भी तो नहीं कहा है अभी तक। बस इसी आस में मैं लगा रहा अपने मिशन पर। कभी उसके पीछे-पीछे उसके कोचिंग तक जाता तो कभी छुट्टी होने पर उसके स्कूल के बाहर खड़ा रहता बाइक पर लिफ्ट देने के लिए, वो अलग बात थी की उसने कभी ली नहीं। मतलब वो सारे काम किए जो आजकल के लड़के भी कर रहे हैं। लेकिन नीयत शायद उनसे कहीं ज्यादा साफ थी।

इन सबके बीच उसका जन्मदिन भी आया। दोनों का बुलावा था मेरा भी और मेरे दोस्त का भी। लेकिन एक समस्या थी कि बुलावा बहुत शॉर्ट नोटिस पर मिला था, कॉलेज से घर लौटते ही। ऐसे में कोई गिफ्ट भी नहीं था तो कैसे जाते खाली हाथ। बस फिर क्या बाइक उठाई और दौड़ लगा दी गिफ्ट के लिए। बहुत ढूँढने के बाद एक गिफ्ट मिला, पर्फ्यूम के साथ एक ग्रीटिंग कार्ड। कोई आम कार्ड नहीं था वो, उसके अंदर थे '100 रीज़न्स व्हाय आई लव यू'। मैं थोड़ा हिचका लेने में लेकिन दोस्त के कहने पर ले लिया और जिस रफ्तार से गए थे उसी रफ्तार के साथ वापस भी आए। हम उसके घर पहुंचे तब तक केक कट चुका था, यानि हम थोड़ा लेट थे। लेकिन मुझे कोई मतलब नहीं था केक से। मुझे जिससे मतलब था वो बला की खूबसूरत लग रही थी आज। मैं धीरे से उसकी तरफ गया और सबसे छुपाते हुये उसे गिफ्ट दिया इस हिदायत के साथ की अकेले में देखना इसे। वो शायद इस बारे में अपनी चचेरी बहन को बता चुकी थी जो हम दोनों को देखकर मुस्कुरा रही थी। खैर उस दिन सब अच्छा रहा। मैं खुश था बहुत। एक-दो दिन बाद ही उसने मुझसे एक डायरी मांगी। पूछने पर बस यही बोली, देनी हो तो दे दो वरना रहने दो। मैं कैसे मना करता सो दे दी। काफी उत्साहित था कि क्यों मांगी है डायरी, क्या करना है। अगले ही दिन वो डायरी उसने वापस मेरे पास भिजवा दी। जैसे ही उस डायरी को खोलकर देखा तो उछल पड़ा। अरे वाह! ये क्या है। उसने वही कार्ड वाले 100 रीज़नस उस डायरी में लिखे थे। मुझे लगा बात बन गयी मेरी, लेकिन नहीं ऐसा नहीं था। जैसे ही आखिरी पेज देखा तो सारी खुशी काफ़ूर हो गयी। उसने उस डायरी में अपनी जगह किसी और का नाम लिखा था। किसका, बताने की कोई वजह नहीं दिख रही। खुशी के माहौल में मायूसी छा गयी। मैंने तुरंत फोन किया और नाराजगी जाहिर की तो उसने हँसते हुये फोन काट दिया। मुझे उसके उस दिन हँसने का कारण आज तक समझ नहीं आया।

खैर, उस बात पर मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया सिवाए इतने के कि उस डायरी के वो पन्ने आज भी सहेज रखे हैं मैंने। लेकिन कभी पलट कर नहीं देखता उन्हे। अच्छा नहीं लगता देखकर।

उस दौरान आये ख़ुशी के हर मौके को मैं उसके साथ जोड़कर देखने लगा। चाहे कोई त्यौहार हो या नया साल। वैसे ऐसा मैंने पहले कभी नहीं किया था लेकिन इस बार 31 दिसंबर की रात खास रही मेरे लिए। क्योंकि मैंने 01 जनवरी के दिन की शुरुआत उसके साथ की थी। बहाना था नया साल शुरू हुआ है तो बड़ों का आशीर्वाद लेना चाहिए, अपने घर के भी और उसके घर के भी। जैसे ही घड़ी ने रात के 12 बजाए, मैं पहुँच गया उसके घर बिना कुछ सोचे-समझे, एक बार फिर सबसे मिलने के बहाने उससे मिलने। उसने पूछा डर नहीं लगता आपको मेरे घर आने में? मैं जवाब में थोड़ा मुस्कुरा गया, वो शायद समझ गयी थी मेरी मुस्कुराहट को इसलिए दोबारा कुछ नहीं पूछा, बस अपने घर पर लगे गुलाब में से एक तोड़कर दे दिया मुझे।
इस बार सवाल करने की बारी मेरी थी तो पूछ लिया- 'क्या मतलब निकालूँ इसका मैं?'
लेकिन इस बार शायद जवाब में मुस्कुराने की बारी उसकी थी तो बिना जवाब दिये बस मुस्कुरा दी।
और उस गुलाब की तरह मेरा सवाल आज भी सवाल बनकर पड़ा है कहीं कागज़ों के बीच, कि क्या मतलब था उसका? लेकिन अब जवाब नही चाहता। उन दोनों को पड़े रहने देना चाहता हूँ वहीं, उन्हीं कागज़ों में, कई परतों के नीचे।

उस साल की होली भी बहुत अलग ढंग से मनाई। वैसे मैं होली खेलता नहीं लेकिन उस होली पर खूब हुड़दंग मचाया अपने दोस्तों के साथ। भांग भी चढ़ गयी थी थोड़ी सी। उसी सुरूर में चला गया उसके घर। बड़ों का आशीर्वाद लिया उसके भाइयों को रंग लगाया, लेकिन जैसे ही उसे रंग लगाने को बढ़ा वो भाग गयी। मैंने भी उसके पीछे-पीछे छत तक पहुँच गया जहां वो एक कोने में सिमटी सी खड़ी थी। बहुत ना-नुकुर करने के बाद धीरे से उसके गालों पर गुलाल लगा दिया। लेकिन हाँ, भंग के नशे में भी इतना होश था मुझे कि किसी तरह की असभ्यता किए बिना वापस आ गया।  सब कुछ कितना अच्छा था उन दिनों में।

समय बीतने के साथ-साथ मेरे लिए इस बात की गंभीरता बढ़ती गयी, लेकिन वो नहीं मानी। इधर फ़र्स्ट इयर के एग्जाम भी आ गए। एक ही पेपर हुआ था, पता लगा कि वो सब गाँव जा रहे हैं एक महीने के लिए। बस मेरे मूड के साथ पेपर भी खराब हो गए, हालात ये कि बस फ़ेल नहीं हुआ। होना ही था ऐसा, क्योंकि जिस समय मुझे पढ़ाई करनी चाहिए थे उस समय मैं उसके लिए लेटर लिख रहा था। उसे भेजने से पहले अपने दोस्त को बताया तो उसने कहा ये लेटर नहीं खुला दिल है तेरा, जिसमे सब कुछ दिखता है। ये पढ़ के तो भाभी को मान ही जाना चाहिए, वो हर दूसरे दिन किसी न किसी बात पर बोल ही देता था 'अब तो भाभी को मान ही जाना चाहिए'। खैर, दोस्त के आश्वासन पर भेज दिया उसकी चचेरी बहन के हाथों जो गाँव जा रही थी और तब तक हमारे बारे में सब कुछ जान चुकी थी। इसी तरह कुछ-कुछ ऊटपटाँग सा करते हुये जैसे-तैसे एक महीना बीता और वो वापस आ गयी। मैं मानो फिर से ज़िंदा हो गया। फिर रोज़ की वही बातें, वही मनाना, वही इमोशनल अत्याचार । और फिर उन दिनों तो उसके स्कूल और मेरे कॉलेज की भी छुट्टियाँ हो गयी थी तो सारे दिन का यही काम। कभी फोन पर कभी घर जाकर। ठीक ही चल रहा था सब कुछ। लेकिन ज्यादा दिन नहीं।

पता नहीं क्या हुआ था उस दिन और क्यों। मेरे फोन करने पर थोड़ी देर बाद बात करने को कह कर रख दिया। कुछ देर बाद दोबारा फोन किया और अपना वही पुराना बाजा बजाने लगा जिसका राग शायद उस दिन उसे अच्छा नहीं लगा या शायद और कोई बात थी। जो भी रहा हो बहुत उदास लगी वो उस दिन मुझे। उसी उदासी में बात करते-करते अचानक झल्ला उठी...
क्या है!!!
क्यों परेशान कर रखा है इतने दिनों से?
मानते क्यों नहीं हो?
मैं इतनी परेशान हो गयी हूँ तुमसे कि इससे तो अच्छा है कि जाओ, मर जाओ जाके कहीं, पीछा छूटे मेरा।
और फोन पटक दिया। मैं बुत बन गया। कुछ समझ नहीं आया कि क्या, क्यों, और कैसे हुआ। संभालने में थोड़ा समय लग गया। उस दिन लगा कि सच में मर जाऊँ लेकिन इतनी हिम्मत नहीं थी। खूब रोया उस दिन। फिर बाइक उठाई और पहुँच गया अपने उसी दोस्त के घर। वो भी मेरी शक्ल देख कर समझ गया कि कुछ हुआ है। पूछने पर सब बताया मैंने लेकिन वो फिर भी बोला अरे क्या हुआ, मूड खराब होगा भाभी का, इसलिए निकल गया होगा मुंह से। उसने जबर्दस्ती मुझसे नंबर लेकर बात की उससे, और मुझसे भी करवानी चाहिए लेकिन मैंने नहीं की। उस दिन शायद मैंने भी ठान लिया था कि अगर वो चाहती है तो मैं मर गया उसके लिए आज से ही। फिर कभी आवाज़ नहीं सुनेगी वो मेरी। उसके बाद उसने कई बार कोशिश कि मुझसे बात करने की, बुलावा भी भिजवाया मिलने के लिए लेकिन बहुत देर हो गयी थी तब तक। शायद मैं सच में मर चुका था उसके लिए। और इस तरह वो हमेशा के लिए मेरे दोस्त की 'कभी ना होने वाली भाभी'  बन कर रह गयी और मेरे सारे सवाल, सवाल बनकर।

ये क्या था, क्यों था पता नहीं लेकिन जो भी था अच्छा था। आज हम दोनों खुश हैं अपनी-अपनी जगह। उसका पता नहीं लेकिन मैं हूँ। इसका मतलब ये नहीं कि वो सब बेकार था मेरे लिए लेकिन ज़िंदगी कभी रुकती नहीं। मेरी भी नहीं रुकी, ना ज़िंदगी और ना खुशी। और वो सब आज एक कहानी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

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